Piyush Pandey: कभी-कभी कोई व्यक्ति सिर्फ अपने शब्दों से पूरी पीढ़ी को बदल देता है। ऐसे ही व्यक्ति हैं पियूष पांडे, जिनके विज्ञापनों ने न सिर्फ ब्रांड बनाए, बल्कि भारत की आवाज़ को दुनिया तक पहुंचाया।
जयपुर की गर्म दोपहरों, गलियों में खेलते बच्चों, और हिंदी की सुगंध से निकला यह शख्स विज्ञापन की दुनिया में एक भावनात्मक क्रांति लेकर आया।
पियूष का जन्म 1955 में जयपुर में हुआ। वे कहते हैं – “मैंने अपने बचपन में देखा कि लोग कहानी सुनाने से नहीं थकते थे। मैं वही कहानियां आज भी सुनाता हूं, बस ब्रांड की भाषा में।”
बोर्डरूम नहीं, दिल से निकले विचार
जब उन्होंने Ogilvy India में कदम रखा, तब विज्ञापन जगत अंग्रेज़ियत से भरा था। लोग मानते थे कि “क्रिएटिव” होने का मतलब है अंग्रेज़ी में बोलना। लेकिन पियूष ने इस सोच को तोड़ा – उन्होंने कहा, “भारत को बेचना है तो भारत की भाषा में बोलना होगा।”
उनके विज्ञापन सिर्फ बेचने का माध्यम नहीं थे, बल्कि भावनाओं की पुलिया थे। “हर घर कुछ कहता है” में उन्होंने घर की दीवारों को बोलने की ताकत दी, “कुछ मीठा हो जाए” में भारतीय भावनाओं को मिठास में पिरोया, और “चलता है क्या, Fevikwik?” में साधारण लोगों के रोज़मर्रा के ह्यूमर को पहचान दी।
पियूष पांडे ने साबित किया कि विज्ञापन वो नहीं जो दिखे, बल्कि वो है जो महसूस हो।
भारत की मिट्टी से उठी सोच
उनकी सबसे बड़ी ताकत थी भारतीयता। वे अपने हर काम में लोकगंध, त्योहार, और मानवीय रिश्तों की खुशबू लाते थे। उनके विज्ञापन में गांव भी था, शहर भी, मां की रसोई भी थी और बच्चों की शरारत भी।
जब दुनिया चमकदार विजुअल्स और ग्लैमर के पीछे भाग रही थी, पियूष ने एक साधारण और सच्चा भारत दिखाया – जहां भावनाएं बिकती नहीं, जुड़ती हैं।
उनके विज्ञापन देखते हुए दर्शक को ऐसा लगता था जैसे कोई अपना ही बात कर रहा हो। वह भारत के दिल को समझते थे – और वही उन्हें बाकी सबसे अलग बनाता था।
विज्ञापन की दुनिया में ‘शोले’ जैसी पहचान
“चलता है क्या, Fevikwik?” या “हर घर कुछ कहता है” आज भी घर-घर में दोहराए जाते हैं। ये सिर्फ स्लोगन नहीं, बल्कि सांस्कृतिक संवाद बन चुके हैं।
Cadbury Dairy Milk का वह विज्ञापन – जहां एक लड़की मैच खत्म होते ही मैदान में नाच उठती है – वो सिर्फ खुशी का पल नहीं, बल्कि भारत की उस मासूमियत की झलक थी जिसे पियूष ने हमेशा सहेजा।
उन्होंने कहा था – “मैं विज्ञापन नहीं बनाता, मैं भावनाएं लिखता हूँ।” और यही वजह है कि उनके बनाए हर विज्ञापन में दिल की धड़कन सुनाई देती थी।
पुरस्कारों से बड़ा सम्मान, जनता का प्यार
पियूष पांडे को पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया – पर सच कहें तो, उनका असली सम्मान वो था जब लोगों ने उनके विज्ञापनों को अपना लिया। किसान से लेकर बिजनेसमैन तक, हर किसी ने उनके विज्ञापन में खुद को देखा।
उन्होंने “अबकी बार मोदी सरकार” जैसे राजनीतिक अभियान में भी वही सच्चाई और भावना डाली, और “पोलियो उन्मूलन” जैसे सामाजिक अभियानों को भी जन-आंदोलन बना दिया। उनके शब्द सिर्फ मार्केटिंग नहीं करते थे, देश को जोड़ते थे।
हिंदी की आत्मा और रचनात्मकता की पहचान
पियूष ने यह साबित किया कि हिंदी सिर्फ भाषा नहीं, भावना है। उन्होंने हर उस क्रिएटिव को रास्ता दिखाया जो अंग्रेज़ी के साए में खो गया था।उनकी शैली सरल, लेकिन असरदार थी – जैसे आम आदमी की आवाज़।
वे कहते थे – “अगर आपकी दादी आपका विज्ञापन समझ ले, तो वो सच में अच्छा विज्ञापन है। यह एक सोच नहीं, बल्कि एक दर्शन था – जिसने भारतीय विज्ञापन को नया चेहरा दिया।
विरासत जो कभी नहीं मिटेगी
आज भी जब हम टीवी या मोबाइल पर कोई प्यारा विज्ञापन देखते हैं – जहां शब्द मुस्कान लाते हैं, या संगीत यादें जगाता है – तो समझिए, वहां कहीं न कहीं पियूष पांडे का असर ज़रूर है।
उन्होंने हमें सिखाया कि रचनात्मकता का मतलब दिखावा नहीं, बल्कि दिल से जुड़ना है। भारत की संस्कृति, भाषा और भावना को अगर किसी ने विज्ञापनों में जिया है, तो वो हैं – पियूष पांडे। वे सिर्फ एक विज्ञापन निर्माता नहीं, बल्कि उस भारत की आवाज़ हैं जो अब भी दिल से बोलता है।
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