One Nation One Election : केंद्रीय कैबिनेट ने ‘एक देश, एक चुनाव’ के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है। इस योजना के तहत लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जाने की व्यवस्था की जाएगी। सरकार की ओर से इसे मौजूदा शीतकालीन सत्र में संसद में पेश किए जाने की संभावना है। इस बिल पर सभी राजनीतिक दलों के सुझाव लिए जाएंगे और बाद में इसे संसद से पास कराया जाएगा।
इससे पहले पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली समिति ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी। इस रिपोर्ट में ‘एक देश, एक चुनाव’ के क्रियान्वयन से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर सुझाव दिए गए थे। सूत्रों के अनुसार, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कैबिनेट में इस प्रस्ताव के बारे में विस्तार से जानकारी दी थी।
क्या है ‘एक देश, एक चुनाव’ का विचार?
‘एक देश, एक चुनाव’ का अर्थ है कि पूरे देश में लोकसभा और सभी राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाएं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लंबे समय से इस विचार का समर्थन करते आए हैं। उनका कहना है कि बार-बार चुनाव होने से समय, संसाधन और धन की बर्बादी होती है। यह प्रशासनिक मशीनरी पर भी अतिरिक्त बोझ डालता है।
पहले भी हो चुके हैं एक साथ चुनाव
भारत में यह व्यवस्था नई नहीं है। 1952, 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ हुए थे। लेकिन राज्यों के पुनर्गठन, सरकारों के असमय गिरने और अन्य कारणों से यह प्रक्रिया बाधित हो गई। इसके बाद चुनाव अलग-अलग समय पर होने लगे।
सरकार क्यों मानती है यह व्यवस्था जरूरी?
सरकार का मानना है कि ‘एक देश, एक चुनाव’ से कई फायदे हो सकते हैं:
1. चुनावी खर्च में कमी: बार-बार चुनाव कराने पर करोड़ों रुपये खर्च होते हैं।
2. राजनीतिक स्थिरता: एक साथ चुनाव से बार-बार चुनावी माहौल बनने से बचा जा सकता है।
3. विकास पर जोर: बार-बार चुनावों से नीतियों में बदलाव और सरकार का ध्यान भटकता है।
4. प्रशासनिक लाभ: प्रशासनिक अधिकारियों का समय और ऊर्जा बचाई जा सकती है।
5. सरकारी खजाने पर कम बोझ: कम खर्च से सरकारी धन का उपयोग अन्य विकास कार्यों में हो सकेगा।
समिति की सिफारिशें
रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली समिति ने सुझाव दिया है कि (One Nation One Election) पहले चरण में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाएं। इसके बाद, 100 दिनों के भीतर स्थानीय निकाय चुनाव कराए जा सकते हैं।
प्रस्ताव को लागू करना आसान नहीं
हालांकि इस प्रस्ताव को लागू करना आसान नहीं होगा। इसके लिए संविधान में संशोधन की आवश्यकता होगी, जिसमें सभी दलों की सहमति जरूरी है। कुछ विशेषज्ञों और विपक्षी दलों का मानना है कि यह संघीय ढांचे पर असर डाल सकता है।
आगे की राह
सरकार इस प्रस्ताव पर सहमति बनाने के लिए सभी पक्षों से बातचीत करेगी। अगर इसे संसद से मंजूरी मिलती है, तो यह भारत के चुनावी इतिहास में एक बड़ा बदलाव होगा।