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West Bengal Politics: 2026 के चुनाव में TMC और BJP के बीच असली मुकाबला, जानिए बाकी पार्टियों का हाल

by | Dec 22, 2025 | ट्रेंडिंग, बड़ी खबर, मुख्य खबरें, राजनीति

West Bengal Politics: पश्चिम बंगाल में जैसे ही चुनाव नजदीक आते हैं, कोलकाता और उसके आसपास चलने वाली लोकल ट्रेनों का माहौल बदल जाता है। रोज दफ्तर, स्कूल या काम पर जाने वाले यात्री अचानक राजनीतिक विशेषज्ञ बन जाते हैं। सुबह का अखबार हाथ में होता है और उसी के आधार पर बहस शुरू कौन जीतेगा, कौन हारेगा, किसकी चाल सही है और किसकी नहीं। कई बार बात इतनी बढ़ जाती है कि बहस गरमागरम हो जाती है।

2026 के विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे पास आ रहे हैं, यह चर्चाएं और तेज हो गई हैं। बनगांव, रानाघाट, लक्ष्मीकांतपुर जैसी लाइनों की ट्रेनों में हर दिन चुनावी जोड़-तोड़ पर बातें हो रही हैं। ऐसे में एक नजर डालते हैं उन पार्टियों पर जो इस बार बंगाल की चुनावी लड़ाई में अहम भूमिका निभाने वाली हैं।

ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस पिछले 15 सालों से बंगाल की सत्ता में है। पार्टी खुद को “प्रो-बंगाली”, “प्रो-विकास” और सबको साथ लेकर चलने वाली पार्टी बताती है। उसका सबसे बड़ा सहारा है मज़बूत जमीनी संगठन और ममता बनर्जी का लोकप्रिय चेहरा।

2021 के विधानसभा चुनाव में टीएमसी ने 213 सीटें जीतकर रिकॉर्ड बनाया था और लगभग 48% वोट शेयर हासिल किया था। “खेला होबे” और “दिदी के बोलो” जैसे नारों ने माहौल बना दिया था। खासकर महिलाओं के लिए शुरू की गई लक्ष्मी भंडार योजना को पार्टी की बड़ी जीत माना गया। अब 2026 में पार्टी को उम्मीद है कि ममता बनर्जी चौथी बार मुख्यमंत्री बनेंगी, और अभिषेक बनर्जी भी संगठन को मजबूती से संभाल रहे हैं।

भाजपा पिछले एक दशक में बंगाल में तृणमूल की सबसे बड़ी विरोधी पार्टी बनकर उभरी है। 2016 के बाद उसने लेफ्ट और कांग्रेस को पीछे छोड़ दिया।
हालांकि 2021 में भाजपा सत्ता में नहीं आ पाई। इसके पीछे कई कारण बताए जाते हैं—

• अल्पसंख्यक और उदार हिंदू वोटरों का साथ न मिलना
• जमीनी संगठन की कमी
• बंगाली संस्कृति को लेकर लोगों की शंकाएं
• ममता बनर्जी के मुकाबले मजबूत मुख्यमंत्री चेहरा न होना
• अंदरूनी गुटबाज़ी

लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने बंगाल से 12 सीटें जीतीं, जिससे उसका हौसला बढ़ा है। सुवेंदु अधिकारी, सुकांत मजूमदार और शमिक भट्टाचार्य जैसे नेता इस बार “इतिहास रचने” की बात कर रहे हैं।

कभी बंगाल की राजनीति में बड़ा नाम रही कांग्रेस आज काफी कमजोर हो चुकी है। 1998 में ममता बनर्जी के अलग होने के बाद पार्टी लगातार सिकुड़ती गई। संगठन कुछ गिने-चुने जिलों तक ही सीमित रह गया।

2021 का विधानसभा चुनाव कांग्रेस के लिए बेहद खराब रहा। न नेतृत्व, न पैसा, न संगठन नतीजा साफ था। हालांकि 2024 लोकसभा चुनाव में उसे करीब 4.7% वोट मिले और 11 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त मिली। ईशा खान चौधरी पार्टी के इकलौते सांसद बने। फिर भी पार्टी अब तक अपनी साफ रणनीति नहीं बना पाई है।

एक जमाने में 34 साल तक बंगाल पर राज करने वाली सीपीआई-एम आज अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। 2021 विधानसभा और 2024 लोकसभा दोनों चुनावों में पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली। वोट शेयर बेहद नीचे चला गया।
पार्टी ने “बांग्ला बचाओ यात्रा” जैसे अभियान चलाए, लेकिन जमीनी ताकत पहले जैसी नहीं रही। कांग्रेस और आईएसएफ के साथ गठबंधन भी 2021 में कोई खास असर नहीं दिखा सका। 2011 के बाद से वामपंथी जनाधार लगातार कमजोर होता गया है।

नौशाद सिद्दीकी के नेतृत्व वाली आईएसएफ 2021 के चुनाव से ठीक पहले बनी थी। शुरुआत में इसे हल्के में लिया गया, लेकिन भांगर सीट जीतकर पार्टी ने सबका ध्यान खींचा।
फुरफुरा शरीफ से जुड़े इस दल को खासकर मुस्लिम युवाओं का समर्थन मिल रहा है। टीएमसी के लिए यह नई और उभरती चुनौती मानी जा रही है, खासकर उन इलाकों में जहां टीएमसी खुद को मजबूत समझती थी।

असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM भी बंगाल में अपनी जड़ें जमाने की कोशिश में है। 2021 में पार्टी ने कुछ सीटों पर चुनाव लड़ा, लेकिन खास असर नहीं दिखा।
अब पार्टी मालदा, मुर्शिदाबाद और उत्तर दिनाजपुर जैसे अल्पसंख्यक बहुल इलाकों में संगठन बढ़ाने पर काम कर रही है और 2026 में फिर से मैदान में उतरने की तैयारी है।

टीएमसी से निलंबित विधायक हुमायूं कबीर ने अपनी अलग पार्टी बनाने का ऐलान किया है, जो 22 दिसंबर को लॉन्च होगी। उनकी पार्टी करीब 135 अल्पसंख्यक बहुल सीटों पर चुनाव लड़ने की बात कर रही है। AIMIM की बंगाल इकाई उनके साथ गठबंधन को लेकर भी उम्मीद जता रही है।

2026 के बंगाल विधानसभा चुनाव में असली मुकाबला एक बार फिर तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के बीच दिख रहा है। वामपंथी दल और कांग्रेस अपनी खोई जमीन वापस पाने की कोशिश में हैं, जबकि आईएसएफ, AIMIM और नई पार्टियां कुछ इलाकों में समीकरण बिगाड़ सकती हैं। और तब तक कोलकाता की लोकल ट्रेनें रोज़ की तरह चुनावी बहसों का सबसे भरोसेमंद मंच बनी रहेंगी।

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